बिलासपुर में बेटियों की सुरक्षा पर बड़ा सवाल—क्या सरकारी स्कूलों में सुरक्षित हैं हमारी बच्चियां?

छत्तीसगढ़ के तखतपुर विकासखंड के सरकारी प्राथमिक स्कूल में छात्राओं से बेड टच और मारपीट के आरोप में शिक्षक के निलंबन की खबर जितनी चौंकाने वाली है, उससे कहीं अधिक गहरी चिंता उस सोच को लेकर है जिसने हमारे स्कूलों को लड़कियों के लिए असुरक्षित बना दिया है। यह कोई पहली घटना नहीं है — और दुर्भाग्य से, अंतिम भी नहीं होगी, अगर व्यवस्था अपनी आंखें मूंदे रहे।

स्कूल: जहाँ भरोसा टूटता है

स्कूल ऐसा स्थान माना जाता है जहाँ बच्चे सिर्फ पढ़ाई नहीं करते, बल्कि सुरक्षित और संवेदनशील वातावरण में अपना व्यक्तित्व गढ़ते हैं। पर जब यही स्थान लड़कियों के लिए भय का पर्याय बन जाए, जब शिक्षक ही शिकारी बन जाए, तब यह केवल किसी एक जिले या एक स्कूल की समस्या नहीं रह जाती—यह पूरी व्यवस्था की विफलता बन जाती है।

मौन क्यों?

अक्सर ऐसी शिकायतें देर से सामने आती हैं, क्योंकि छोटी बच्चियों में साहस नहीं होता, और अभिभावकों में सिस्टम से लड़ने का आत्मविश्वास नहीं। यह मौन ही अपराधियों को बढ़ावा देता है। यही कारण है कि ऐसे मामलों में जांच से पहले ही राजनीतिक, सामाजिक और प्रशासनिक दबाव सक्रिय हो जाता है।

जांच और निलंबन—पर क्या इतना काफी है?

DEO द्वारा आरोपी शिक्षक का निलंबन एक कार्रवाई जरूर है, पर यह सिर्फ शुरुआत है। निलंबन सज़ा नहीं है; यह महज जांच के दौरान अस्थायी कदम है। सवाल है—क्या इसके बाद लंबी कानूनी प्रक्रिया लड़कियों के पक्ष में खड़ी होगी? क्या विभाग के स्तर पर ऐसी घटनाओं को रोकने के लिए स्थायी व्यवस्था बनेगी?

प्रशासन कब जागेगा?

यदि सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाली बच्चियों की सुरक्षा भी सुनिश्चित नहीं हो पा रही है, तो हम शिक्षा के अधिकार की बात कैसे कर सकते हैं? यह केवल शिक्षक की गलती नहीं; यह पूरे प्रशासन की लापरवाही का परिणाम है।
स्कूलों में CCTV, महिला शिक्षकों की पर्याप्त नियुक्ति, काउंसलिंग व्यवस्था, और अभिभावक–शिक्षक संवाद—इन सब पर अब कागजों से बाहर जाकर जमीन पर काम करने की गंभीर आवश्यकता है।

समाज को भी अपनी जिम्मेदारी लेनी होगी

हर बार घटनाओं के बाद शोर मचता है, फिर सब शांत हो जाता है। लेकिन यह खामोशी ही ऐसे अपराधियों की ढाल बनती है। समाज को यह समझना होगा कि लड़कियों के अधिकारों और सुरक्षा का सवाल सिर्फ परिवार का नहीं, पूरे समाज का दायित्व है।
अगर हम अपनी बेटियों को सुरक्षित स्कूल नहीं दे सकते, तो हमारी विकास यात्रा केवल एक झूठी कहानी है।

अंत में…

अगर सरकारी स्कूलों में ही लड़कियां सुरक्षित नहीं हैं, तो देश की आधी आबादी का भरोसा हम किस आधार पर जीत पाएंगे? यह मुद्दा किसी शिक्षक, किसी जिले या किसी सरकार से बड़ा है—यह हमारे भविष्य, हमारे नैतिक चरित्र और हमारी सामाजिक संरचना का आईना है।

अब समय है कि हम यह स्वीकार करें कि सरकारी स्कूलों में लड़कियों की सुरक्षा केवल एक खबर नहीं, बल्कि एक गहरी चेतावनी है। क्योंकि जहाँ बच्चियाँ सुरक्षित नहीं, वहाँ कोई भी समाज सभ्यता का दावा नहीं कर सकता।

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