बिलासपुर: अंतरराष्ट्रीय महिला हिंसा उन्मूलन दिवस, 25 नवंबर 2023 के मौके पर खास पेशकश

ज़माने को लगता है सिर्फ मृत्यु ही आती हैं अचानक,
क्या कभी किसी स्त्री से नहीं पूछा क्या-क्या आता है अचानक?

(सुरेंद्र वर्मा, जरीनाज़ अंसारी)

गुज़िश्ता साल 2000 से प्रत्येक 25 नवंबर को मनाये जाने वाले अंतरराष्ट्रीय महिला हिंसा उन्मूलन दिवस की सार्थकता और उद्ेश्यों के लब्बोलुआब का खुलासा करने के बजाय स्त्रियों की दशा को लेकर की गई बातचीत, लिखी और दिखाई गई तस्वीरों को साझा करना लाजिमी होगा। तभी हम महिलाओं क्रे अस्तित्व-अस्मिता एवं उनके योगदान के लिए दायित्व बोध की चेतना में छुपे संदेश को आत्मसात कर सकेगंे। बहरहाल शुरूवात घरेलू हिंसा और तीन-तलाक से पीड़ित एक मोहतरमा, जो मरीजों के खाना खु़राक़ तय करने वाली आला दर्जे की तालीम महारथ हासिल करने के बाद शुष्क हुई खुद की जिंदगी को पौष्टिक खुराक़ देकर मुस्कान बिखरने में माकूल हुई इसी बिन्दासमहारथी मोहतरमा के जज्बातों का जिक्र करते है। ई-मेल से भेजे गये पोस्ट का इंग्लिश टाईटल है ‘‘नथिंग बट मॉय फीलिग’’ अमृता प्रीतम की प्रेम कहानियॉ पढ़ कर लगता था कि मुहब्बत कोई अनोखी चीज है जहांॅ हर कुछ सुलझा हुआ है, जहां दो लोग के आपस में सिर्फ जिस्मानी नहीं बल्कि रूहानी फासले भी खत्म हो जाते हैं। कोई मिल जाता है जिसे आप आपना सब कुछ मान लेते हैं।

मुश्किलें तब भी थीं अब भी होगी पर साथ मिल जाता है खुश रहने का नया कारण मिल जाता है मन में उमंग होती है महसूस होता है कि दिल में कितना खालीपन था जिसे भरने में की जरूरत थी। दो अंजान लोग एक साथ कैसे जीवन जी लेते हैं, कैसे एक दूसरे के लिए मर मिट जाने की कसम खा लेते हैं अंदाज शायराना जरूर है मगर फिलिंग प्रॉपर है मेरी शादी के पहले लगा था सब कुछ अलग होगा पर नहीं हो पाया। पहले दिन ही जीवन की अपार सच्चाईयों से सामना हुआ। मैंने कब कहा कि जीवन जीना, पैसे कमाना आसान है पर क्या खुश रहना और रखना पाप है? किसके लिए इतना किया जब मैं सामने हूं तो तब भी बाकी चीजों का मोल मुझसे अधिक क्यूॅ? शायद मैं कुछ ज्यादा ही एक्सपेक्ट कर रहीं हूॅ। मुझे भी अपनी मॉओं, अपनी ताई, या चाचियों की तरह रसोई सम्हाल लेना चाहिए, अपनी इच्छाओं का पिटारा कहीं उपर रखकर भूल जाना चाहिए और तकदीर समझ कर मायूसी का घूंघट सर पर रखना चाहिए। मम्मी हमेशा कहती थीं कि चुलबली हो सुसुराल में क्या करोगी? मुझे लगता था कि ससुराल या पति कोई डॉयनासोर है क्या जो खा जाएगा पर मुझे लगता नहीं था।जाहिर है कि लड़कियों अपना चुलबुलापन मायके में भूल आना चाहिए और दहेज के साथ भर-भर कर किलो में खामोशियॉ लाना चाहिए…हॉलाकि मुझे नहीं लगता पर बाकियों को लगता है कि जब जिंदगी की सीरियसनेस देख लो तो खुद को भी जीना और हंसना छोड़ना पड़ता है। वैसे शायद मैं तुम्हें पसंद नही आई वरना इतनी बेरूखी से तो मैं अपने घर सफाई वालों से भी पेश नहीं आती। कुछ तो मजबूरियां रहीं होंगी आपकी वरना मुझे तो नहीं लगता कि मैं इतनी बुरी हूं? आपके साथ इतना अकेलापन फील होगा मैंने सोचा नहीं था। तहरीर खत्म होते ही यकायक सागर सिद्दकी की गज़ल:अगर बज़्म-ए-हस्ती में औरत न होती? गुनगुनाया जाए तो लगता है कि ‘‘अगर बज़्म-ए-हस्ती में औरत न होती, ख़यालों की रंगीन ज़न्नत न होती। सितारों के दिलकश फ़साने न होते, बहारों की नाजु़क हक़ीक़त न होती। जबीनों में नूर-ए-मर्सरत न खिलता, निगाहों में शान-ए-मुरव्व्त न होती।

घटाओं की आमद को सावन तरसते, फ़जाओं में ब़हकी बग़ावत न होती। फ़क़ीरों को इरफ़ान-ए-हस्ती न मिलता, अता ज़ाहिदों को इबादत न होती। मुसाफिर सदा मंज़िलों पर भटकते सफ़ीनों को साहिल की कुर्बत न होती। हर इक फूल का रंग फीका सा रहता, नसीम-ए-बहारॉं में निकहत न होती। खुदाई का इंसाफ़ ख़ामोश रहता, सुना है किसी की शफ़ाअत न होती।’’ बकौल कश्मीरा शाह चतुर्वेदी की स्त्री चिंतन ’अचानक’ भी कडृवे सच्चाई के साथ नज्र है। स़्ित्रयॉ अचानक के लिए अभ्यस्त होती हैं, अचानक सी हो जाती हैं बड़ी, अचानक एक दिन छूट जाता है मनपसंद फ्रॉक, अचानक घूरने लगती हैं निगाहें, उनकी देह की तरफ ना जाने कहॉ कहॉ, चलना-बैठना-खडे़ होना अचानक युद्ध में बदल जाता है अचानक उन्हें पता चलता है कि पड़ोस वाले भईया के भीतर एक जानवर रहता है, और दूर के अंकल जी के अंदर भी और किसके किसके अंदर जानवर देखा उन्होनें कभी किसी को नहीं बता पाई ये। अचानक उसका भाई बदल जाता है जासूस में, पिता सरकार में, पर मांॅं हमेशा से निरीह ही रहती है अचानक गायब भले हो जातीं है फैसलों-से-बहसों से। अचानक आ जाती है माहवारी, अचानक हो जाती है अछूत वह भी उन दिनों में वे एक देह रच सकतीं है जैसे पृथ्वी बना देती है एक बीज को बरगद। अचानक कोई पुरूष उससे कहता है कि तुम दुनियां की सबसे सुंदर स्त्री हो और अचानक चला जाता है वही पुरूष जैसे चला गया हो बादल धरती को छल कर। अचानक बदल जाती है स्त्रियों की दुनियां स्त्रियां हर तरह के अचानक के लिए हमेशा तैयार रहती हैं और जमाने को लगता है सिर्फ मृत्यु ही आती हैं अचानक। क्या कभी किसी स्त्री से नहीं पूछा क्या क्या आता है अचानक? अब गौरतलब है विवाह की पवित्रता अक्षुण्य बनाये रखने में कमतर हुए एक शौहर के नाम से एक वफादार बीवी का खत….सिर्फ और सिर्फ तुम्हारे लिए…! उम्र के आखिरी पड़ाव पर जब झुर्रियॉं रह जाएंगी देह में, हाथों में होने लगेंगीं कपकपाहट, और सांसे भी होंगी धीमी-धीमी तब, मैं बड़ी ही मशक्कत से लिखॅंूगी एक ख़त तुम्हें। लिखॅंूगी वह हर अनकहे ज़ज्बात जो मैं चाहती थी कि तुम सुनो-समझो, लिखूंगी कब तुम मुझे अच्छे लगने लगे थे, कब धड़कनें तुम्हारे नाम से शरमाने लगीं थीं, वो तितलियॉ भी लिखॅंूगी जो रंग थी तुम्हारे छुअन के, वो हया भी लिखॅंूगी जब तुम्हारे बांहों के कसाव में टूटी थी मैं। वो झगड़े भी लिखॅंूगी जब शिकायतें-तोहमतें चरम पर होतीं थीं, लिखॅंूगी वो जलन जो मुझे होती थीं, तुम्हारे किसी और से बात करने पर। लिखॅंूगी वो पजसिवनेस तुम्हारी मेरे पॉव, मेरे काज़ल, मेरी ऑखों को लेकर, लिखॅंूगी वो धमकियॉ तुम्हारे मुझसे दूर जाने की जाने की, वो रोना-तड़पना, वो तलब, वो ख्वाहिसें-बैचेनियॉ तुम्हारी सब मनमानियॉ, हॉ मैं सब लिखॅंूगी। नहीं भूलूूॅगी लिखना तुम्हारी बदगुमानियॉ भी, लिखॅूगी वो सॉसों की रफ्तार तुम्हारी सोहबत में, लिखॅूगी मुझसे मिलने की हसरत, तुम्हारी वो जिद्द भी लिखॅूंगी मुझे सही-गलत समझाने की। और लिखॅूगी वो आवाज़ तुम्हारी जहॉ जाकर सब शून्य हो जाता है मुझमें। और लिखॅूगी तुम्हें अपना सिर्फ अपना, और खुद को उस खत में तुम्हें समर्पित कर मैं उस खत का विराम दूंगी पन्ने मोड़कर।उस खत में अपनी हर अनकही बात कहकर कुछ लफ्ज भीगे होंगे तो कुछेक महकते। मगर हर लफ्ज एक कहानी होगा जो मैने लिखी होगी सिर्फ तुम्हारे लिए, जिंदगी के आखिर पड़ाव पर तुम्हे, हॉं मैं एक खत लिखॅंूगी तुम्हें। मगर वो खत की है तुमसे मैनें, इश्क हो तुम मेरी रूह का…हॉ मेरी रूह का और आखिरी फलसफे में जिक्र करते है 1902 में अल्लामा इकबाल की लिखी एक नज्म की जिसे बच्चे की दुआ कहा गया। दुनियॉं भर में सराहे गये इस नज्म के शुरूवाती बोल थें लब में आती है दुआ बन के तमन्ना मेरी, जिंदगी शमा की सूरत हो खुदाया मेरी। 118 साल बाद शोयए मंसूर इसी तर्ज पर एक और दुआ लेकर आये हैं दुआ ए रीम यानि दुंल्हन की दुआ। ये इकलाब की नज्म का पीनऑप कहा जा सकता है ये दुआ दो हिस्सों में है एक में है दुल्हन को नसीहत और दूसरे हिस्से में है दुल्हन की ब़गावत। 1947 के पहले का भारत है, एक महलनुमा जगह है जहां महिलाआंे की महफिल चल रही है दुल्हन की दुआ गाई जा रही है गाने वाली कजरी बेगम शुरू में ही इसरार करती है कि दुल्हन की अम्मां को दुल्न के बराबरी बिठाया जाए नज्म या दुआ शुरू होती है। लब पे आवे है दुआ बन के तमन्ना मेरी, जिंदगी अम्मां की सूरत हो खुदाया मेरी। अम्मां जिनकी शक्ल से ही परेशानी और पशेमानी टप टप टपकती नजर आ रही है इस हद तक कि महज शक्ल देखकर बता सकते है कि इस औरत ने कैसे जिंदगी जी हुई है। इस बात को इनसाईड पर रखने वाली बेटी इस फिकरे को सुनकर पलट कर अपनी अम्मां को देखती है अम्मां की आंखों में है पीड़ा और बेटी की आंखों में सवाल?मेरा इमां हो शौहर की इताअत करना (इताअत यानी फरमाबरदारी, आज्ञाकारी) उनकी सूरत की ना सीरत की शिकायत करना। घर में उनके भटकने से अंधेरा हो जावे, नेकियां मेरी चमकने से उजाला हो जावे। धमकियां दे ंतो तसल्ली हो तो थप्पड़ ना पड़ा, पड़े थप्पड़ तो शुक्र है कि जूता ना हुआ। हो मेरा काम नसीबों की मलामत करना (मलाकत करना यानी कोसना), बीवियों को नहीं भावे है बगावत करना। मेरे अल्लाह लड़ाई से बचाना मुझको, मुस्कुराना गालियां खा के सिखाना मुझको।इस तमाम जुमले को सुन गुस्से में दुंल्हन अपनी अंगुलियां मरोड़ती रहती है, शिकायती नजरो से अपनी मां को देखे जाती हैं, मां शर्मिन्दा है लंेकिन मजबूर है। मां को प्रतिरोध की डगर का पता ही नहीं वो राह दुल्हन बिटिया को ही खोजनी होती है, वो खोजती भी है और चिल्ला कर कहती है कि बस…! पूछती है कि ये कैसी हौलनॉक दुआ की जा रही है, हौलनाक यानि ऐसी दुआ जो हौल कर रख दे, दहला कर रख दे। वाकई ये दुआ ऐसी है जिससे कि हर दुल्हन लड़की को डर जाना चाहिए।दुआ का ये हिस्सा डोमेस्टिक वॉयलेंस को पुरूषवाद को वैलिडेशन दे रहा है। उसके वजूद को मजबूत कर रहा है। पति ही परमेश्वर होता है उसकी हर ज्यादती को मुकद्र समझ कर सह लेंना चाहिए जैसे तमाम कूड़ेदान में फेंकने लायक बातें यहां दुल्हन को विरासत वाली सीख देकर परोसी जा रही है। दुल्हन इस सीख को लेने से इंकार कर देती है और अपनी दुआ खुद लिखती है। क्या है वो दुआ पढ़ा जावे। लब पे आती है दुआ बनके तमन्ना मेरी, घर तो उनका हो हूकूमत हो खुदाया मेरी। मैं अगर बत्ती बुझाउ ंके अंधेरा हो जावे, मैं ही बत्ती जलाउं के उजाला हो जावे। मेरा ईमान हो शोहर से मुहब्बत करना, न इताअत, न गुलामी, न इबादत करना। ना करूं मैके में आके शिकायत उनकी, करनी आती है मुझे खुद ही मरम्मत उनकी। आदमी तो तूने उन्हें बनाया है या रब, मुझको सिखला उन्हेें इंसान बनाना या रब। घर में उनके भटकने से अंधेरा हो जाए, भाड़ में झोंकूं उनको और उजाला हो जाए। वो हो तो शाहीन मौला मैं शाहीना हो जाउं, और कमीने हो तो मैं बढ़के कमीना हो जाउं। लेकिन अल्लाह मेरे ऐसी ना नौबत आए, वो रफाकत हो के दोनों को राहत आए। वो मुहब्बत जिसमें अंदेशा-ए-जवाल ना हो, किसी झिड़की किसी थप्पड़ का सवाल ना हो। उनको रोटी है पसंद मुझको भावे है चावल, ऐसी हो उल्फत हो कि हम रोटी से खावंे चावल। दुल्हन की ये बात कई मायनों में अहम है इसके पीड़ा है, बगावत है, मोहब्बत है और थोड़ी से समझदारी भी है। दुल्हन को मार खाना मंजूर नहीं है ऐसी नौबत आने पर वो पलट कर मरम्मत करने को तैयार है उसे शौहर की ना तो गुलामी करनी है और ना ही इबादत हॉ बराबर वाली मुहब्बत पर वो राजी है पति को वो आदमी से इंसान बनाना चाहती है लेकिन उसे ट्रीट फॉर ट्रेट पर विश्वास है पति के कमीना निकल जाने पर वह खुद ही कमीना बनना चाहती है पर वो ये भी दुआ करती है कि ऐसी नौबत ही ना आए उसे ऐसी मुहब्बत की तलाश है जिसमें अंदेशा-ए-जवाल नहीं हो यानि पतन की आशंका, खत्म हो जाने की आशंका नहीं हो अपनी दुआ वो अजीब सी लेकिन प्यारी सी बात पर खत्म करती है कि एक को रोटी दूसरे को चावल पसंद हो तो इश्क के खाते मेें रोटी के साथ चावल का भी कांबिनेशन चलाया जा सकता है। तालियों की गूंज की बीच खत्म हो रही इस दुआ को सुनकर सुनने वालों को भी तालियां बजाने का मन करता है। शोयब मंसूर की ये दुआ की महज कुछ मिनटों में कई सारी अहम चीजों को छू आकर आती है जैसे स्त्री ही स्त्री की दुश्मन है वाली बात। दुल्हन को सब्र की दरगुजर देेने वाली नसीहत देने वाली तमाम ही तमाम औरतें ही हैं घर की बड़ी बूढ़ियों, परिवार की आंटियां ऐसे ही अमूमन होता ही है हालांकि यहां औरतों को दोयम करने की मंशा बिलकुल ही नहीं है लेकिन ये औरतें वही सब आगे बढ़ा रहीं है जो उन्हें विरासत में मिलता आया है इस चैन को कहीं ना कहीं तोड़ना जरूरी है और दुल्हन तोड़ती है और इसी का नतीजा है कि दर्शकों में मौजूद एक महिला सारे बंधन तोड़ कर नाचने लगती है। हिम्मत एक वजूद से दूसरे वजूद में यूं ही ट्रांसफर हुआ करती है। धीरे धीरे बाकी महिलाओं का एक्सप्र्रैशन बदलने लगते हैं, चढ़ी हुई त्यौरियां ढीली पड़ने लगती है और अंत आतें तमाम औरतों के मुस्कुराते चेहरे इस बात पर मुहर लगाते हैं कि यूनिवर्सल लेेबल पर घरेलू हिंसा से जूझ रही औरतें चेत तो रही हैं ये अच्छा साईन है। इस तरह ये दुआ महज सात मिनट के विडियो के जरिये लड़कियों के अंदर उर्जा भरने की सलाईयत रखती है। इससे जुड़े हर शख्स का शुक्रिया।

सहयोगी: असीम तिवारी,मुबारक।

 

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