
NHI Desk: छत्तीसगढ़ की तीन अलग-अलग तहों में पनपती एक जैसी क्रूर कहानियां—अलग नाम, अलग जगह, पर पीड़ा और विश्वासघात की स्याही से लिखी एक जैसी त्रासदी।
चुप्पी की चीत्कार और व्यवस्था की वारदातें: क्या बेटियाँ अब भी सुरक्षित हैं?
पहला मामला: शादी का झूठा सपना और हैदराबाद तक पीछा करती दरिंदगी
तारबाहर की एक युवती ने एक ऐसे व्यक्ति पर भरोसा किया, जिसने उसे शादी का झांसा देकर हैदराबाद तक खींच लिया। आरोपी कृष्ण कुमार यादव, जिसे तकनीक की दुनिया में वेबसाइट प्रोजेक्ट्स का इंजीनियर कहा जाता है, असल में एक ऐसा शिकारी निकला जो भावनाओं के जाल में फँसाकर शारीरिक शोषण करता रहा। पुलिस टीम ने तकनीकी लोकेशन ट्रैक कर उसे 1,000 किलोमीटर दूर से धरदबोचा।
दूसरा मामला: प्यार के नाम पर 4 साल का शारीरिक शोषण और शिवरात्रि पर धोखा
घुरू की एक युवती की कहानी और भी भयावह है। आरोपी राजू यादव ने अपने ही जान-पहचान की लड़की को चार साल तक प्रेमजाल में बाँध कर बार-बार शोषण किया, झूठी शादी रचाई, और तीन महीने तक साथ रखकर अंततः उसे बेसहारा छोड़ भाग गया। यह न सिर्फ कानून का उल्लंघन है, बल्कि समाज और रिश्तों पर करारा तमाचा भी है।
तीसरा मामला: नाबालिग के साथ स्कूल के साए में दरिंदगी
चकरभाठा में एक नाबालिग पीड़िता की मां और स्कूल टीचर ने थाने में रिपोर्ट दी कि आरोपी घनश्याम यादव ने बच्ची को डरा-धमकाकर शारीरिक शोषण किया। यह मामला सिर्फ अपराध नहीं है, यह मासूमियत पर किया गया वह हमला है जिसे शब्दों में बयाँ करना भी कठिन है।
तीन घटनाएं, एक दर्द—और एक चेतावनी
इन घटनाओं से एक बात स्पष्ट होती है: बेटियों को शोषण से ज़्यादा, अब “झूठे भरोसे” से डरना चाहिए। प्यार, रिश्ते, और समाज की आड़ में छुपे दरिंदे अब सिर्फ जंगलों में नहीं, शहरों की गलियों में, स्कूलों में और तकनीक के ऑफिसों में छुपे हैं।
पुलिस की तत्परता सराहनीय, लेकिन…
इन मामलों में एसएसपी श्री रजनेश सिंह, एएसपी श्री राजेन्द्र जायसवाल, नगर पुलिस अधीक्षक श्री निमितेश सिंह, और थाना प्रभारियों ने जिस तत्परता से कार्यवाही की, वह निश्चित रूप से सराहनीय है। अपराध दर्ज होते ही घंटों में गिरफ्तारी और न्यायिक रिमांड इस बात का प्रमाण है कि यदि प्रशासन ठान ले, तो न्याय दूर नहीं।
पर क्या सिर्फ गिरफ्तारी से बेटियाँ सुरक्षित हो जाएँगी?
समाज को खुद से पूछना होगा—कहाँ चूक हो रही है?
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क्या हम अपने बच्चों को सच और झूठ में फर्क सिखा पा रहे हैं?
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क्या रिश्तों के नाम पर बेटियों को ‘समझाने’ के बजाय हम उन्हें ‘सशक्त’ कर रहे हैं?
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क्या सिर्फ पुलिस की ज़िम्मेदारी है बेटियों की रक्षा?
अब चुप नहीं, जवाब चाहिए!
ये संपादकीय सिर्फ अपराध की सूचना नहीं है, यह एक जागरूक समाज के नाम खुला खत है।
👉 बेटियाँ अब “बचने” की नहीं, “लड़ने” की भाषा सीख रही हैं।
👉 व्यवस्था अब “दिखावे” से नहीं, “नतीजों” से जानी जाएगी।
👉 और समाज अब “चुप्पी” से नहीं, “जवाबदेही” से बदलेगा।
पुनश्च:
जब तक बेटियाँ डरती रहेंगी, तब तक बलात्कारी बढ़ते रहेंगे।
जब बेटियाँ बोलेंगी, तो बलात्कारी थरथराएँगे।
और जब पूरा समाज उठेगा, तो बलात्कार संस्कृति मिटेगी।