
बिलासपुर की सड़कों पर एक 70 वर्षीय बुजुर्ग मां – फातिमा – अपनी मृत बेटी सलमा के लिए न्याय की गुहार लगाती घूम रही है। उसकी आंखों में आंसू नहीं, बल्कि इंसाफ की आग है। यह कहानी सिर्फ एक महिला की मौत की नहीं, बल्कि सिस्टम, समाज और संवेदना के पतन की भयावह तस्वीर है।
सलमा की मौत को ‘खुदकुशी’ बताने की कोशिश हो रही है, लेकिन उसके शरीर पर मिले जख्म चीख-चीख कर बता रहे हैं कि यह एक “धीमी हत्या” थी – जो 12 साल पहले शुरू हुई और अब दम तोड़ गई। एक धार्मिक मुखौटे के पीछे छिपे ‘दरिंदे मौलाना बशीर’ पर लगे आरोप सिर्फ सलमा की हत्या तक सीमित नहीं हैं – महिलाओं से दुर्व्यवहार, बच्चों से छेड़छाड़, अवैध संपत्तियों का निर्माण और मदरसे की आड़ में भय और आतंक का कारोबार… क्या ऐसे लोगों के लिए समाज में कोई जगह होनी चाहिए?
पुलिस अधीक्षक रजनेश सिंह द्वारा दिए गए आश्वासन सराहनीय हैं, लेकिन सवाल यह है कि क्या न्याय महज़ आश्वासनों से मिलेगा? या फिर ये भी किसी फाइल में दबा मामला बनकर रह जाएगा? अस्पताल प्रबंधन की भूमिका भी संदेह के घेरे में है, जहां एक ही मौत पर तीन अलग-अलग रिपोर्टें तैयार कर दी गईं। यह चौंकाने वाला तथ्य है, जो इस केस में “प्रणालीगत साजिश” की आशंका को और मजबूत करता है।
यह सिर्फ सलमा की लड़ाई नहीं है – यह हर उस महिला की लड़ाई है, जो घरेलू हिंसा, धार्मिक पाखंड और सामाजिक चुप्पी की शिकार है। जब समाज के भीतर ही एक महिला की हत्या को ‘निजी मामला’ कहकर नजरअंदाज किया जाने लगे, तो यह हमारी चेतना पर सबसे बड़ा सवाल है।
धन्य है वह समाज, जिसने फातिमा का साथ देने की हिम्मत दिखाई। अब समय है कि सिर्फ बयान नहीं, बल्कि कार्रवाई हो।
मौलाना बशीर जैसे पाखंडियों को बेनकाब कर सलाखों के पीछे भेजना न सिर्फ सलमा के लिए न्याय होगा, बल्कि समाज के लिए चेतावनी भी।