अब जनता पूछ रही है — क्या तहसीलदार गरिमा सिंह इस घोटाले की नैतिक जिम्मेदारी लेंगी या बाबुओं पर ही ठीकरा फोड़कर बच निकलेंगी?
बिलासपुर तहसील से फर्जी ईडब्ल्यूएस प्रमाणपत्रों का बड़ा घोटाला उजागर हो चुका है। तीन प्रमाणपत्र फर्जी पाए जाने की पुष्टि हो चुकी है और चार की जांच जारी है। सबसे चौंकाने वाली बात यह है कि इन फर्जी प्रमाणपत्रों के मूल दस्तावेज़ तहसील से ही गायब कर दिए गए हैं।
गरिमा सिंह पर उठ रहे सवाल
तहसीलदार गरिमा सिंह ने साफ कहा कि प्रमाणपत्रों पर उनके हस्ताक्षर नहीं हैं। लेकिन सवाल यह है कि यदि दस्तावेज़ उनके नाम से जारी हुए, तो जिम्मेदारी उनकी निगरानी पर क्यों न ठहराई जाए?
कार्यालय से मूल दस्तावेज़ गायब होना और बाबू की आईडी से काम होना, दोनों ही घटनाएँ सीधे प्रशासनिक लापरवाही की ओर इशारा करती हैं।
बाबू ही बलि का बकरा?
जांच में बाबू की संदिग्ध भूमिका तो सामने आई है, लेकिन आईडी और पासवर्ड सिस्टम पर उसकी पकड़ कैसे बनी? क्या बिना तहसीलदार की जानकारी और लापरवाही के यह संभव था?
जनता पूछ रही है कि क्या बाबू महज़ बलि का बकरा है और असली मिलीभगत कहीं और छुपी हुई है?
नीट एडमिशन में भी फर्जीवाड़ा
फर्जी प्रमाणपत्र का इस्तेमाल एक छात्रा ने नीट एडमिशन में किया। पहले गरिमा सिंह ने दस्तखत करने से मना किया, लेकिन बाद में वही दस्तावेज़ हस्ताक्षरित रूप में छात्रा तक पहुंच गया। सवाल साफ है — गरिमा सिंह की आंखों के सामने यह जालसाजी हुई या उनकी जानकारी के बिना पूरा सिस्टम ठप पड़ा था?
जिम्मेदारी से बचना मुश्किल
1. यदि हस्ताक्षर आपके नहीं हैं, तो बताइए ये दस्तावेज़ किसने साइन किए?
2. दस्तावेज़ तहसील से ही गायब हुए हैं, क्या यह आपके कार्यकाल की सीधी जिम्मेदारी नहीं है?
3. यदि आप निर्दोष हैं, तो अब तक आपने खुद FIR क्यों दर्ज नहीं कराई?
4. क्या बाबू के खिलाफ कार्रवाई सिर्फ लीपापोती है ताकि असली गुनहगार बच निकले?
फर्जी ईडब्ल्यूएस प्रमाणपत्र गरीब और जरूरतमंद बच्चों का हक छीन रहे हैं। तहसील से दस्तावेज़ों का गायब होना और फर्जी हस्ताक्षरों का खेल यह साबित करता है कि बिलासपुर तहसील में निगरानी और ईमानदारी दोनों कटघरे में हैं।















