सहायक आयुक्त पी.सी. लहरे के मौखिक आदेश पर मुंगेली में पदस्थ कनिष्ठ लेखाधिकारी शिव यादव बिलासपुर कार्यालय में संभाल रहा स्टोर का काम
बिलासपुर रिश्वतकांड – बाबू तो पकड़ा गया, लेकिन सिस्टम कब सुधरेगा?
बिलासपुर में एसीबी द्वारा आदिवासी विकास विभाग के बाबू मनोज तोनडेकर को रिश्वत लेते रंगे हाथ पकड़ना केवल एक व्यक्ति की करतूत का खुलासा नहीं है, बल्कि यह पूरे तंत्र पर सवाल उठाता है। जिस विभाग का दायित्व समाज के कमजोर और वंचित तबके के लिए योजनाओं को पारदर्शी ढंग से लागू करना है, उसी विभाग में प्रोत्साहन राशि पाने के लिए रिश्वत मांगना बेहद शर्मनाक है।
इस घटना का महत्व इसलिए और बढ़ जाता है क्योंकि आरोपी बाबू पर पहले भी वित्तीय गड़बड़ियों के आरोप लग चुके हैं। पुरानी कंपोजिट बिल्डिंग की समिति में आय-व्यय की हेराफेरी के चलते उसे हटाया गया था। इसके बावजूद ऐसे व्यक्ति का संवेदनशील पद पर बने रहना विभाग की कार्यप्रणाली की गंभीर खामियों को उजागर करता है। सवाल यह उठता है कि क्या भ्रष्टाचार को रोकने के लिए सिर्फ एसीबी की कार्रवाई ही काफी है या विभागीय जिम्मेदारी भी तय होनी चाहिए?
यह भी सोचने वाली बात है कि सहायक आयुक्त जैसे जिम्मेदार पद पर बैठे अधिकारी पी सी लहरे अपने अधीनस्थ कर्मचारियों की कार्यशैली पर निगरानी क्यों नहीं रखते। जब शिकायतकर्ता एक आम नागरिक होकर साहस जुटाकर एसीबी तक पहुंच सकता है, तो क्या विभागीय मुखिया को भ्रष्टाचार की बू नहीं आती? यदि आती है और फिर भी कार्रवाई नहीं होती तो यह मूक सहमति ही कही जाएगी।
आज आवश्यकता है कि ऐसे मामलों में सिर्फ गिरफ्तारी पर संतोष न किया जाए, बल्कि विभागीय स्तर पर कठोर अनुशासनात्मक कार्रवाई हो। भ्रष्टाचार करने वालों की जवाबदेही तय हो और उन्हें किसी अन्य जिम्मेदारी वाले पद पर दोबारा अवसर न मिले।
एसीबी की यह 34वीं कार्रवाई बताती है कि प्रदेश में भ्रष्टाचार की जड़ें कितनी गहरी हैं। लेकिन केवल कार्रवाई की संख्या बढ़ाने से समाज में भरोसा नहीं बनेगा। भरोसा तभी लौटेगा जब सरकारी विभाग खुद अपनी सफाई करेंगे और दोषियों को संरक्षण देना बंद करेंगे।
भ्रष्टाचार के खिलाफ इस लड़ाई को अधूरा नहीं छोड़ा जा सकता। अगर व्यवस्था को वाकई पारदर्शी और जवाबदेह बनाना है, तो अब समय आ गया है कि सरकार और विभाग अपने भीतर की सफाई खुद शुरू करें।















