
राजनीति के चश्मे से देखी जा रही अरपा की पीड़ा?
बिलासपुर की जीवनधारा कही जाने वाली अरपा नदी आज रेत चोरों के लालच और प्रशासनिक उदासीनता की शिकार है। विडंबना यह है कि जिन मुद्दों पर वर्षों तक मौन साधा गया, सत्ता बदलते ही वे मुद्दे अचानक जनहित की चिंता बन जाते हैं। हालिया उदाहरण कांग्रेस द्वारा निकाली गई पदयात्रा और जल सत्याग्रह है, जो अरपा में हो रही रेत चोरी के विरोध में किया गया।
यह बात किसी से छिपी नहीं कि कांग्रेस सरकार के समय में भी रेत के अवैध उत्खनन की घटनाएं कम नहीं थीं। आरोप लगते रहे कि उस दौर में भी एक विधायक और कुछ प्रभावशाली नेताओं के समर्थकों के संरक्षण में रेत की जमकर लूट होती रही। तब कांग्रेस के ही कार्यकर्ता खामोश थे, जबकि उसी समय अरपा नदी कराह रही थी।
अब जब सत्ता परिवर्तन हुआ है, तो अचानक वही नेता और कार्यकर्ता जनहित के मुद्दे लेकर सड़कों पर उतर आए हैं।
यहां यह स्पष्ट करना जरूरी है कि रेत चोरो के खिलाफ कार्रवाई होनी ही चाहिए—चाहे वह किसी भी सरकार के समय हो। लेकिन समस्या तब शुरू होती है जब जनहित के मुद्दों को राजनीतिक लाभ के लिए उठाया जाता है, न कि समाधान के लिए। इससे न तो अरपा को राहत मिलती है और न ही आम जनता को।
रेत उत्खनन से जुड़े नियमों की खुलेआम धज्जियां उड़ाई जा रही हैं। प्रतिबंध के बावजूद नदियों से रेत की चोरी हो रही है, और जगह-जगह डंप कर उसे ऊंचे दामों पर बेचा जा रहा है। यह सब प्रशासनिक मिलीभगत के बिना संभव नहीं है। कांग्रेस हो या भाजपा—हर सरकार में खनिज विभाग और माफिया के बीच अदृश्य समझौते की बातें सामने आती रही हैं।
इस संदर्भ में जिला कांग्रेस कमेटी द्वारा उठाई गई मांग—जैसे जब्त रेत को रियायती दर पर जरूरतमंदों को उपलब्ध कराना—व्यावहारिक जरूर है, लेकिन उसका क्रियान्वयन भी उसी प्रशासन के भरोसे है, जिसकी कार्यप्रणाली पर सवाल उठाए जा रहे हैं।
अंततः सवाल यह नहीं है कि कौन विरोध कर रहा है, बल्कि सवाल यह है कि विरोध क्यों और कब किया गया? यदि सच में अरपा की चिंता है तो इसे सत्ता से ऊपर उठकर निरंतर आंदोलन का रूप देना होगा, न कि सत्ता परिवर्तन का अवसर बनाना होगा।